नई शिक्षा नीति का बेतुका विरोध
भारत की शिक्षा व्यवस्था में नई नीति को लेकर हो रही राजनीति अनुचित
देश में नई शिक्षा नीति (NEP) को चार साल पहले लागू किया गया था, और अब इसका तेजी से क्रियान्वयन हो रहा है। लेकिन तमिलनाडु जैसे कुछ राज्य इसे चुनावी मुद्दा बनाकर भाषा के नाम पर बाधाएं खड़ी कर रहे हैं। यह रवैया ठीक नहीं है, क्योंकि देश की शिक्षा व्यवस्था में समानता और गुणवत्ता लाना बेहद आवश्यक है।
नई शिक्षा नीति सभी राज्यों के अधिकारियों और विशेषज्ञों के सहयोग से तैयार की गई है, जो भारत की संस्कृति और ज्ञान परंपरा को मजबूत करने में सक्षम है। यह नीति न केवल ज्ञान-विज्ञान में भारत की भागीदारी बढ़ाने का लक्ष्य रखती है, बल्कि ऐसी नई पीढ़ी तैयार करने में भी सक्षम है, जो भारतीय मूल्यों और “विविधता में एकता” के सिद्धांत को साकार करेगी।
लेकिन यह तभी संभव होगा, जब इसे सिर्फ राजनीतिक कारणों से बाधित न किया जाए। तमिलनाडु की एम.के. स्टालिन सरकार को यह समझना चाहिए कि भारत की युवा पीढ़ी के भविष्य से समझौता करना उचित नहीं है। सरकारें आती-जाती रहेंगी, लेकिन शिक्षा नीति को राजनीतिक स्वार्थों का शिकार नहीं बनाया जाना चाहिए।
राजनीतिक असहमति से शिक्षा नीति पर नकारात्मक प्रभाव
राजनीतिक दलों की असहमति और बयानबाजी का प्रभाव केवल चुनावी मुद्दों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि युवा पीढ़ी पर भी इसका गहरा असर पड़ता है। आज के दौर में छात्र सिर्फ अपने परिवार या शिक्षकों से ही नहीं सीखते, बल्कि समाज के प्रभावशाली लोगों और नेताओं के आचरण से भी प्रभावित होते हैं।
जब युवा संसद में असंवैधानिक भाषा और असंसदीय आचरण को बढ़ावा पाते हैं, जब वे चुनाव प्रचार में नेताओं को मर्यादाओं को तोड़ते देखते हैं, तो वे भी ऐसे ही व्यवहार को अपनाने लगते हैं। इस स्थिति में वे सही और गलत के बीच भटकने लगते हैं और नकारात्मकता का शिकार हो जाते हैं।
नेताओं और सरकारों की जिम्मेदारी
सरकारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि उनके निर्णय नई पीढ़ी को प्रभावित करते हैं। शिक्षा नीति का उद्देश्य केवल पाठ्यक्रम बदलना या भाषा नीति तय करना नहीं है, बल्कि समाज में एक सकारात्मक परिवर्तन लाना भी इसका प्रमुख उद्देश्य है।
यदि नेता, सरकारें और प्रशासनिक संस्थान सही उदाहरण प्रस्तुत नहीं करेंगे, तो फिर छात्रों और शिक्षकों से अनुशासन और नैतिकता की अपेक्षा करना निरर्थक होगा। संसद की कार्यवाही यदि बार-बार बाधित होती रहेगी, और दूसरी ओर विश्वविद्यालयों में कक्षाओं की नियमितता की बात होगी, तो यह दोहरे मानदंड जैसा प्रतीत होगा।
संविधान और शिक्षा नीति का सही क्रियान्वयन आवश्यक
संविधान केवल चुनावी जीत-हार तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें शालीनता, सेवा, ईमानदारी और नैतिकता जैसे मूल तत्व भी अंतर्निहित हैं। संविधान सभा में डॉ. राजेंद्र प्रसाद और डॉ. भीमराव आंबेडकर ने स्पष्ट किया था कि संविधान की सार्थकता उसे लागू करने वाले नेताओं और संस्थाओं पर निर्भर करेगी।
नई शिक्षा नीति इसी दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, लेकिन इसके लिए सभी पक्षों का समर्थन आवश्यक है। इसे केवल राजनीतिक कारणों से बाधित करना भारत के भविष्य के साथ अन्याय होगा। सभी राज्यों को इसे अपनाना चाहिए और इसमें सकारात्मक योगदान देना चाहिए, ताकि भारत एक मजबूत और सशक्त शिक्षा प्रणाली की ओर अग्रसर हो सके।
(लेखक प्रधानमंत्री संग्रहालय एवं ग्रंथालय में अटल फेलो हैं)