स्वीकृत पदों पर नियुक्ति न करना शिक्षा के मौलिक अधिकार का उल्लंघन : हाईकोर्ट
प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि उत्तर प्रदेश में प्रधानाचार्य और सहायक अध्यापकों की कमी के कारण छात्रों की पढ़ाई बाधित हो रही है, जो कि शिक्षा के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। न्यायमूर्ति प्रकाश पाडिया की पीठ ने यह टिप्पणी बांदा के कृषि औद्योगिक विद्यालय की ओर से दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए की।
रिक्त पदों को न भरना मौलिक अधिकार का हनन
हाईकोर्ट ने कहा कि शिक्षा का अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार है, लेकिन राज्य सरकार और संबंधित अधिकारी रिक्त पदों को भरने में देरी कर इस अधिकार का उल्लंघन कर रहे हैं। कोर्ट ने इस मामले में राज्य सरकार से जवाब मांगा और महानिदेशक विद्यालयी शिक्षा, उत्तर प्रदेश को व्यक्तिगत हलफनामा प्रस्तुत करने का निर्देश दिया।
संस्थान की मांग को किया गया नजरअंदाज
याचिकाकर्ता कृषि औद्योगिक विद्यालय ने हाईकोर्ट को बताया कि:
- विद्यालय में एक प्रधानाध्यापक, दो सहायक अध्यापक, एक क्लर्क और दो चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के पद जून 2022 से रिक्त हैं।
- इन पदों को भरने के लिए संस्थान ने कई बार अनुरोध किया, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।
- राज्य सरकार ने महानिदेशक विद्यालयी शिक्षा को रिपोर्ट भेजने का निर्देश दिया था, लेकिन आज तक कोई प्रस्ताव नहीं आया।
कोर्ट ने इस पर गंभीरता से संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार को 10 दिनों के भीतर हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया है। मामले की अगली सुनवाई 17 फरवरी को होगी।
घरेलू हिंसा में पति के परिवार को गलत तरीके से फंसाना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग: हाईकोर्ट
प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने घरेलू हिंसा के मामलों में पति के रिश्तेदारों को गलत तरीके से फंसाने को न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग बताया है। कोर्ट ने इस आधार पर विवाहित बहनों के खिलाफ दर्ज मामले को रद्द कर दिया।
केवल साझा घर में रहने वाले ही प्रतिवादी बन सकते हैं
यह आदेश न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल की पीठ ने सोनभद्र की कृष्णा देवी और अन्य की अर्जी पर दिया।
पीड़िता ने अपने पति, सास और विवाहित बहनों के खिलाफ घरेलू हिंसा का केस दर्ज कराया था। अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष मामला लंबित था, जिसे रद्द करने की मांग हाईकोर्ट में की गई।
कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियां
- घरेलू हिंसा का मुकदमा केवल उन्हीं पर दर्ज किया जा सकता है, जो पीड़िता के साथ साझा घर में रहते हों।
- विवाहित बहनें अलग रहने के कारण घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत प्रतिवादी नहीं बन सकतीं।
- अक्सर पीड़िताएं परेशान करने के लिए पति के रिश्तेदारों के खिलाफ भी केस दर्ज करा देती हैं, जो गलत है।
इन तथ्यों के आधार पर कोर्ट ने विवाहित बहनों के खिलाफ दर्ज मामले को रद्द कर दिया, लेकिन पति और सास के खिलाफ कार्यवाही जारी रखने का आदेश दिया।
इस निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि न्यायालय केवल वास्तविक पीड़ितों को न्याय देने के पक्ष में है और झूठे मामलों को बढ़ावा देने के खिलाफ सख्त रुख अपनाए हुए है।
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