43 साल का शिक्षण घोटाला! शहरी स्कूलों की हालत क्यों हो गई खस्ताहाल?
शामली/उत्तर प्रदेश:
43 साल से शहरी क्षेत्रों के बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के दावे कागजों में ही सिमट गए। 1981 में अलग संवर्ग बनाने के बाद भी अब तक न तो सीधी भर्ती हुई और न ही स्थायी शिक्षक पहुंचे। नतीजा—कभी बच्चों से गुलजार रहने वाले स्कूल आज शिक्षामित्रों के भरोसे सांस ले रहे हैं।
अधूरी योजनाएं और खस्ता हाल हकीकत
- पहले 18 नगर परिषदीय स्कूल थे, अब केवल 9 बच पाए हैं।
- कई स्कूल बंदी की कगार पर, कुछ में 100+ बच्चे और सिर्फ 1-2 शिक्षक।
- स्थायी भर्ती नहीं, सिर्फ तदर्थ व्यवस्थाएं।
43 वर्षों की लापरवाही कैसे बनी आफत?
1981 में बेसिक शिक्षा अध्यापक सेवा नियमावली लागू हुई और नगरीय क्षेत्रों को अलग संवर्ग घोषित किया गया।
- ग्रामीण क्षेत्र में भर्ती लगातार होती रही।
- शहरी क्षेत्र भर्ती से वंचित रह गया।
- बाद में नियम बना: 5 साल ग्रामीण सेवा के बाद शहरी तैनाती—but शिक्षक वरिष्ठता घटने के डर से तैयार नहीं।
कानून क्या कहता है? हकीकत क्या है?
RTE के हिसाब से:
- कक्षा 1-5: 30 बच्चों पर 1 शिक्षक।
- कक्षा 6-8: 35 बच्चों पर 1 शिक्षक।
जमीनी सच्चाई: 100 से 170 बच्चों पर 1 ही अध्यापक!
जिम्मेदारी किसकी?
बीएसए लता राठौर ने कहा:
“हम लगातार सरकार को पत्र भेज रहे हैं। अगर ग्रामीण से शहरी तैनाती का नियम मजबूती से लागू हो, तो समस्या सुलझ सकती है।”
क्या होना चाहिए अगला कदम?
- शहरी संवर्ग में तत्काल सीधी भर्ती।
- वरिष्ठता विवाद का समाधान।
- शिक्षामित्रों की नियमित नियुक्ति या नए स्थायी पद।
- शिक्षकों को बिना वजह के कामों से मुक्त कर पढ़ाई पर ध्यान।
क्यों जरूरी है यह सुधार?
क्योंकि शहरी क्षेत्रों के सरकारी स्कूल ही गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चों की आखिरी उम्मीद हैं। अगर यही खत्म हो गए तो शिक्षा पूरी तरह निजी हाथों में चली जाएगी।