“जब गलती की टोपी बड़ी हो, तो सबसे कमजोर सिर पर ही रख दी जाती है।”
बदायूं के सहसवान में जो हुआ, वो दुर्भाग्यपूर्ण था — दो मासूम जानें चली गईं। लेकिन उससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है वह सोच, जो इस पूरे हादसे का ठीकरा सरकारी स्कूल पर फोड़ने पर तुली हुई है।

सोचिए ज़रा —
🛑 सरकारी स्कूल बंद था, आदेश के अनुसार।
🧾 बच्चों का नाम सरकारी रजिस्टर में था, पर उन्हें भेजा जा रहा था बिना मान्यता वाले एक निजी विद्यालय में।
👪 अभिभावकों ने स्वयं अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में दाखिला दिलाया, और उस दिन भी वही बच्चे प्राइवेट स्कूल जा रहे थे।
अब सवाल यह है —
❓ जब ना स्कूल खुला था,
❓ ना बच्चों की उपस्थिति थी,
❓ और ना ही हादसा सरकारी परिसर में हुआ,
तो सरकारी स्कूल के प्रधानाध्यापक को हटाना कौन-सी न्यायप्रियता है?
🧠 क्या अब माता-पिता की स्वेच्छा से लिए गए निर्णयों की जिम्मेदारी भी सरकारी टीचर उठाएंगे?
जब मिडडे मील की जांच होती है, तो हर बार टीचर शक के घेरे में। लेकिन जब बच्चा प्राइवेट स्कूल में भेजा जा रहा है — बिना मान्यता वाले स्कूल में — तब उसके लिए कौन ज़िम्मेदार?
क्या सरकारी शिक्षक को इसलिए सज़ा दी जा रही है क्योंकि उसने अभिभावकों की दोहरी नीति को नहीं पकड़ा?
या फिर इसलिए कि वो एक ऐसा चेहरा है, जिसे बलि का बकरा बनाना आसान है?
👉 सरकारी विद्यालयों में नामांकन केवल संख्या नहीं है, यह कई बार समाज में मौजूद दोहरे मापदंडों का परिणाम है।
– जहां नाम सरकारी स्कूल में, पढ़ाई ट्यूशन या प्राइवेट में।
– लाभ सरकारी योजनाओं का, लेकिन भरोसा निजी संस्थानों पर।
❗तो फिर सज़ा किसे मिलनी चाहिए?
- उस बिना मान्यता वाले स्कूल को जो खुला था?
- या अभिभावकों को जिन्होंने वहां भेजा?
- या प्रशासन को जिसने उस स्कूल को बंद नहीं कराया?
लेकिन कार्रवाई होती है सिर्फ एक शिक्षक पर, क्योंकि वो “सरकारी है”, और हर बात की “सार्वजनिक जिम्मेदारी” उसी की है।
निष्कर्ष:
“बच्चों की मौत एक त्रासदी थी, लेकिन शिक्षक पर कार्रवाई एक अन्याय है।”
👨🏫 अगर शिक्षक ही हर गलती का पात्र हैं, तो क्या अभिभावकों को सिर्फ सहानुभूति की पावती देकर छोड़ा जाना न्यायसंगत है?
✍️ – सरकारी कलम
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