पारिवारिक पेंशन पर पत्नी का पहला हक़: इलाहाबाद हाईकोर्ट का अहम फैसला 🏛️👩‍⚖️

पारिवारिक पेंशन पर पत्नी का पहला हक़: इलाहाबाद हाईकोर्ट का अहम फैसला 🏛️👩‍⚖️

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पारिवारिक पेंशन से जुड़ा एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील निर्णय सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सेवा पुस्तिका में बेटों का नाम दर्ज होने के बावजूद, पति से अलग रह रही पत्नी को पारिवारिक पेंशन पाने का पहला अधिकार है, यदि वह गुजारा भत्ता पर आश्रित रही हो।


📌 क्या है मामला?

मिर्जापुर निवासी उर्मिला सिंह ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर अपने दिवंगत पति की पारिवारिक पेंशन की मांग की थी।

  • उनके पति प्राथमिक विद्यालय में सहायक अध्यापक थे।
  • वर्ष 2016 में सेवानिवृत्त हुए और 2019 में उनका निधन हो गया।
  • सेवानिवृत्ति के बाद वह नियमित पेंशन प्राप्त कर रहे थे।
  • उसी दौरान परिवारिक अदालत के आदेश पर उर्मिला सिंह को ₹8,000 प्रति माह गुजारा भत्ता दिया जा रहा था, क्योंकि वह पति से अलग रह रही थीं।

पति की मृत्यु के बाद जब उन्होंने पारिवारिक पेंशन के लिए आवेदन किया, तो शिक्षा विभाग ने यह कहते हुए आवेदन खारिज कर दिया कि सेवा पुस्तिका में उनका नाम नहीं है, बल्कि केवल बेटों के नाम दर्ज हैं।

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⚖️ कोर्ट का स्पष्ट रुख

न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान की एकल पीठ ने इस मामले पर सुनवाई करते हुए कहा:

“पारिवारिक पेंशन उस व्यक्ति को दी जाती है, जो कर्मचारी की मृत्यु के समय उस पर आश्रित था। यदि पत्नी अलग रह रही हो, लेकिन गुजारा भत्ता पा रही हो, तो वह आश्रित मानी जाएगी।”

कोर्ट ने माना कि याची पति की पेंशन पर निर्भर थी, और उसे गुजारा भत्ता मिल रहा था। इसलिए सिर्फ सेवा पुस्तिका में नाम नहीं होने का आधार बनाकर पारिवारिक पेंशन से इनकार करना गैरकानूनी और अन्यायपूर्ण है।


कोर्ट का आदेश

हाईकोर्ट ने याचिका स्वीकार करते हुए आदेश दिया कि:

🔹 उर्मिला सिंह को पारिवारिक पेंशन का पूरा लाभ दिया जाए।
🔹 शिक्षा विभाग द्वारा किया गया पूर्व निर्णय निरस्त किया जाए।


📚 इस फैसले का व्यापक असर

यह निर्णय उन सभी महिलाओं के लिए राहत बन सकता है, जो किसी कारणवश पति से अलग रहती हैं लेकिन कानूनी रूप से पत्नी बनी रहती हैं और आश्रित भी होती हैं।

👉 सेवा पुस्तिका में नाम दर्ज न होना एकमात्र आधार नहीं हो सकता।


🗣️ न्याय का संदेश

इस फैसले से ये संदेश जाता है कि:

🔹 कानूनी हक़ केवल कागज़ों तक सीमित नहीं होता,
🔹 बल्कि वास्तविकता और आश्रय पर आधारित होता है।


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✍️ न्यायिक फैसले सिर्फ कानून नहीं, इंसाफ़ भी देते हैं।

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