बौद्धिक कचरे का उत्सर्जन और सोशल मीडिया






बौद्धिक कचरे का उत्सर्जन और सोशल मीडिया


बौद्धिक कचरे का उत्सर्जन और सोशल मीडिया

सोशल मीडिया आज की दुनिया में विचारों की अभिव्यक्ति का सबसे सुलभ माध्यम बन गया है। फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर हम सभी अपनी बात रखने को स्वतंत्र हैं, लेकिन यह स्वतंत्रता कब बौद्धिक मल उत्सर्जन में बदल जाती है, इसका एहसास कम ही लोगों को होता है।

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आलोचना या बौद्धिक विसर्जन?

आजकल के ‘आलोचक’ अपनी हर छोटी-बड़ी, अधपकी बातों को फेसबुक पर लिख डालते हैं। उन्हें लगता है कि यह उनका मंच है, जहां वे विचारों का बौद्धिक विसर्जन कर सकते हैं। लेकिन ये विचार कई बार गंभीर, संतुलित या रचनात्मक नहीं होते — वे बस भीतर जमा गुस्से, हताशा और अधपढ़ ज्ञान का उत्सर्जन होते हैं।

“फेसबुक आज आत्म-संवाद का शौचालय बन गया है, जहाँ व्यक्ति मानसिक मल त्यागकर मानसिक हल्कापन अनुभव करता है।”

फेसबुक: मानसिक राहत या आभासी बोझ?

लोग यहां आकर वे बातें लिखते हैं, जो वे किसी को सामने कह नहीं सकते। वे नकारात्मकता, कड़वाहट और मानसिक कुंठा से ग्रसित होकर दूसरों पर विचारों का थोपन करते हैं। धीरे-धीरे यह प्लेटफॉर्म बौद्धिक संवाद की जगह मानसिक विषाद का दर्पण बन जाता है।

आईडी बनाम असली पहचान

सोशल मीडिया पर लोग जिन आईडी से लिखते हैं, वे अक्सर उनकी वास्तविकता से दूर होती हैं। लोग अपने फेक प्रोफाइल से दूसरों पर टिप्पणियाँ करते हैं, कटाक्ष करते हैं और आलोचना की आड़ में घृणा फैलाते हैं। असली पहचान छिपाकर आलोचना करना किसी भी रचनात्मक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं होता।

सोशल मीडिया की जिम्मेदारी

हमें सोशल मीडिया को केवल बौद्धिक कचरे का डंपिंग ग्राउंड न बनने देना चाहिए। इसके बजाय इसे रचनात्मक संवाद, विचारों की उन्नति और सकारात्मक संवाद का मंच बनाना चाहिए। यदि हम अपने विचारों को संयमित और तार्किक रूप में प्रस्तुत करें, तभी यह मंच समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।

– अभिजीत दुबे


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