सोशल मीडिया की चमक और बच्चों की सोच:
पढ़ाई क्यों करें जब ठेले वाला भी कमाता है ज़्यादा?
बच्चों की तर्कपूर्ण लेकिन भ्रामक सोच
मनोसामाजिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह ‘रिल्स बनाम रियलिटी’ का प्रभाव है। बच्चे सोशल मीडिया पर चंद सेकंड की वीडियो देखकर यह मान लेते हैं कि बिना पढ़ाई के भी सफलता संभव है। वे यह भूल जाते हैं कि पर्दे के पीछे की मेहनत, अनुभव और संघर्ष का कोई विकल्प नहीं होता।
1. साल क्यों बर्बाद करें?
रिजल्ट में फेल होने पर कई छात्र अभिभावकों से कहते हैं कि एक साल दोबारा क्यों पढ़ें? क्यों न किसी बिज़नेस या स्टार्टअप की शुरुआत करें? कुछ बच्चे कोचिंग, रिटेक्स्टबुक या क्रैश कोर्स की बजाय ऑनलाइन सेलिंग या यूट्यूब चैनल शुरू करने पर ज़ोर देते हैं।
2. स्टार्टअप ही करना है
आईआईटी ड्रॉपआउट्स और स्टार्टअप स्टोरीज़ को देखकर बच्चों का रुझान बिज़नेस की ओर बढ़ रहा है। वे सोचते हैं कि डिग्री की बजाय एक यूनिक आइडिया ही काफी है। जबकि सच्चाई यह है कि सफल स्टार्टअप के पीछे गहरी योजना, अनुभव और लगातार मेहनत होती है।
3. मम्मी-पापा को समझाओ
छात्रों का मानना है कि माता-पिता को भी अब ‘डिग्री वाली सफलता’ से आगे बढ़कर ‘इंस्टेंट सक्सेस’ की ओर सोचना चाहिए। वे यह भी कहते हैं कि अगर ठेले वाले या छोटा व्यापारी ज़्यादा कमा रहा है, तो पढ़ाई में समय क्यों लगाएं?
असफलता का स्वाद भी जरूरी
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, यह दौर बच्चों के लिए ‘बिना संघर्ष के सफलता’ का भ्रम पैदा कर रहा है। ऐसे में माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को रियलिटी और रील्स के फर्क को समझाएं।
बच्चों को असफलता से सीखना और गिरकर उठना सिखाना ही असल शिक्षा है। सफल होने के लिए शिक्षा एक अनिवार्य औजार है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।