किसे आरक्षण, किसे नहीं: कार्यपालिका और विधायिका का दायित्व
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यह तय करना कार्यपालिका और विधायिका का काम है कि आरक्षण का लाभ पाने वाले और दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में आ चुके लोगों को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाए या नहीं।
संविधान पीठ के फैसले का हवाला
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन ने बृहस्पतिवार को एक याचिका पर सुनवाई के दौरान पिछले साल अगस्त में सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा दिए गए फैसले का जिक्र किया। इस फैसले में कहा गया था कि राज्यों को अनुसूचित जातियों (एससी) के भीतर उप-वर्गीकरण करने का संवैधानिक अधिकार है, ताकि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से अधिक पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ मिल सके।
75 वर्षों के अनुभव पर आधारित टिप्पणी
जस्टिस गवई ने कहा, “हमने 75 वर्षों के अनुभव को देखते हुए अपनी राय दी है कि उन लोगों को आरक्षण से बाहर रखा जाना चाहिए जिन्हें पहले से लाभ मिलता रहा है और जो अब दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा की स्थिति में आ गए हैं। लेकिन यह निर्णय लेना पूरी तरह कार्यपालिका और विधायिका का अधिकार है।”
क्रीमी लेयर की पहचान की आवश्यकता
संविधान पीठ के फैसले का हिस्सा रहे जस्टिस गवई ने कहा था कि राज्यों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में भी क्रीमी लेयर की पहचान करने के लिए नीति बनानी चाहिए। उन्होंने कहा, “ऐसे लोगों को आरक्षण का लाभ देने से मना करना चाहिए, जो पहले ही पर्याप्त रूप से उन्नति कर चुके हैं।”
यह टिप्पणी सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने और वास्तविक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण का लाभ दिलाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखी जा रही है।
नीति न बनने पर सवाल
बृहस्पतिवार को शीर्ष अदालत में याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील ने उस फैसले का हवाला दिया, जिसमें क्रीमी लेयर की पहचान के लिए नीति बनाने का सुझाव दिया गया था। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान पीठ का फैसला पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि नीति बनाना कार्यपालिका और विधायिका का काम है।